जिन्दगी में धुप छाँव।
उतार चढ़ाव क्यों आते हैं?
क्या सबक देते हैं?
क्या सिखलाते हैं?
मिथ्या हे सब, व्यर्थ है।
शायद यही बतलाते हैं?
जिनके लिए जान दो।
वाही जान लिए जाते हैं।।
मिथ्या है सब , कौन इन्हें बतलायेगा।
जिस दिन मर जाएंगे हम।
शायद तभी समझ आएगा।।
हमको तो मिल जायेंगे,
चार यार काँधा देने।
तेरे रोने को, काँधा कौन बढ़ायेगा।।
हम तो इंसा हैं।
मिटटी में मिल जायेंगे।
तुझको कौन मन्दिर में बैठायेगा।।
व्यर्थ है सब, मिथ्या ।
माटी के बन्दे माटी में ही मिलते हैं।
सिर्फ एक मुट्ठी राख।
यही जीवन है।।
4 replies on “एक मुट्ठी राख।”
चंद पक्तियों में पूरे जीवन का निचोड़। अद्भुत।
धन्यवाद रितेश
लौकिक यानि सांसारिक दर्शन शास्त्र (temporal philosophy) को अपने इस वेबदैनिकी (blog) के माध्यम से एक नयी दिशा देने का प्रयास किया है। अपने नेसर्गिक तत्वविचार आप लोगो से बाटने की एक छोटी सी कोशिश है। मस्तिष्क में उठे उन्माद के ज्वार भाटा को कागज पर उतारने का एक शुक्ष्म प्रयास, एक पहल। आप के अधिमूल्यन एवं प्रशंसा का हमेशा इंतज़ार रहेगा। पाठको द्वारा किया गया मूल्यांकन बहुमूल्य है, और लेखनी की धार और पेनी करने में मददगार साबित होगा।
nice …
Thanks